
बिहार की राजधानी पटना के दक्षिण में लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर आधुनिक बड़गांव नामक ग्राम के समीप दुनिया के प्राचीनतम विश्वविद्यालय में से एक नालंदा विश्वविद्यालय स्थित था जो तक्षशिला विश्वविद्यालय के बाद दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय था; यहां विश्व के विभिन्न भागों से जैसे- जापान, पार्थिया, चीन, इंडोनेशिया आदि स्थानों से विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे। यहां अध्ययन के बदले विद्यार्थियों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, जहां विद्यार्थियों के पठन-पाठन से लेकर छात्रावास, भोजनालय, पुस्तकालय की सुविधा थी जो पूर्णता नि:शुल्क थी तथा यहां प्रत्येक 5 विद्यार्थियों पर एक प्राध्यापक होते थे। नालंदा प्राचीन समय में अध्ययन का विश्व केंद्र था जिसकी स्थापना गुप्त काल के दौरान पांचवी सदी में हुई थी, लेकिन 1193 के बाद मुस्लिम आक्रमण ने नेस्तनाबूद कर दिया।
नालं+दा अर्थात ज्ञान देने वाला। नालंदा का शाब्दिक अर्थ होता है ‘ वह जो ज्ञान देने वाला है ‘चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार इसका संस्थापक ‘ शक्रादित्य ‘ था, जिसकी पहचान कुमारगुप्त प्रथम ( 415 – 455 ईस्वी ) के रूप में की जाती है जिसकी सुप्रसिद्ध उपाधि ‘महेंद्रादित्य’ थी. कुमारगुप्त के पुत्र बुधगुप्त ने अपने पिता के कार्य को जारी रखते हुए कुमारगुप्त के बनाए विहार के दक्षिण में दूसरा विहार बनवाया। मध्य भारत के राजा हर्षवर्धन ने यहां एक विहार बनवाया तथा चारों ओर से घेरते हुए चारदीवारी बनवा दी। हर्षकाल में आते-आते नालंदा महाविहार एक विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हो गया था।
अद्भुत स्थापत्य नमूना
नालंदा विश्वविद्यालय लगभग 1 मील लंबे तथा आधा मील चौड़े क्षेत्र में स्थित था, भवन स्तूप तथा विहार वैज्ञानिक योजना के आधार पर बनाए गए थे। विश्वविद्यालय में 8 बड़े कमरे तथा 300 छोटे कमरे बने हुए थे, 3 भवनों में स्थित ” धर्मगंज “ नामक विशाल पुस्तकालय था। धर्मगंज पुस्तकालय 3 भव्य भवनों – रत्नसागर, रत्नदधि, रत्नरंजक – में स्थित था। नालंदा के भवन भव्य एवं बहुमंजिले थे। नालंदा में विहार के अतिरिक्त अनेक स्तूप भी थे जिनमें बुद्ध एवं अनेक बोधिसत्व की मूर्तियां रखी गई थी, विश्वविद्यालय के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था।
आक्रांता बख़्तियार ख़िलजी ने धर्मगंज पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि उस समय धर्मगंज में लाखों की संख्या में पुस्तकें व् ग्रंथों का संग्रह था जिनकी कोई प्रतिलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। सभी के सभी हस्तलिखित थीं, इन सभी को बख़्तियार ख़िलजी ने जला दिया। कहते हैं कि पुस्तकालय में इतने ग्रन्थ थें कि कई महीनों तक धूं -धूं करके जलते रहें।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की समग्र व्यवस्था
नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल भारत के कोने-कोने से अपितु चीन, मंगोलिया, कोरिया, तथा मध्य एशियाई देशों से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। ह्वी ली यहां के विद्यार्थियों की संख्या 10 हज़ार बताता है। यहां अध्ययन-अध्यापन का स्तर अत्यंत उच्च कोटि का था। यहाँ प्रवेश के लिए एक कठिन परीक्षा ली जाती थी जिनमें 10 में से 2 या 3 विद्यार्थी मुश्किल से सफल हो पाते थे। यहां के स्नातकों का बड़ा सम्मान था तथा देश में कोई भी उनकी समानता नहीं कर सकता था, इसीलिए यहां प्रवेश के लिए विद्यार्थियों की अपार भीड़ लगी रहती थी। यहां अनेक विषयों की शिक्षा समुचित रूप से प्रदान की जाती थी। यहां बौद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त वेद, हेतुविद्या, शब्दविद्या, योगशास्त्र, चिकित्सा, तंत्रविद्या, सांख्य दर्शन के ग्रंथों आदि की शिक्षा, व्याख्यानों के माध्यम से दी जाती थी। इन विषयों के प्रकांड विद्वान प्रतिदिन सैकड़ों व्याख्यान देते थे, जिसमे प्रत्येक विद्यार्थियों को उपस्थित रहना आवश्यक था।
नालंदा में प्रवेश हेतु परीक्षा का प्रथम चरण प्रवेश द्वार पर खड़े द्वारपाल द्वारा साक्षात्कार से शुरू होता था। द्वारपाल इतना निपुण होता था कि अधिकतर परीक्षार्थी इस प्रथम चरण में ही विफल हो जाते थे।
यहाँ थें विलक्षण गुणों वाले आचार्यगण
ह्वेनसांग जिसने यहां स्वयं 18 महीने तक रहकर अध्ययन किया, लिखता है कि- यहां सैकड़ों की संख्या में अत्यंत उच्च कोटि के विद्वान निवास करते थे। 1000 व्यक्ति ऐसे थे जो सूत्रों और शास्त्रों के बीच संग्रहों का अर्थ समझा सकते थे। 500 व्यक्ति ऐसे थे जो 30 संगठनों को पढ़ा सकते थे। धर्म के आचार्य को लेकर 10 ऐसे थे जो 50 संग्रहों की व्याख्या कर सकते थे। इन सभी में ‘ शीलभद्र ‘ अकेले ऐसे थे, जो सभी संगठनों के ज्ञाता थे। इस प्रकार विभिन्न विद्याओं विचारों एवं विश्वासों में सामंजस्य स्थापित करना इस विद्यालय की प्रमुख विशेषता थी, यहां विचारों एवं विश्वासों की स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता की भावना विद्यमान थी। ह्वेनसांग के समय शीलभद्र ही विश्वविद्यालय के कुलपति थे। चीनी यात्री उनके चरित्र की काफी प्रशंसा करता है। वे सभी विषयों के प्रकांड पंडित थे। उसने स्वयं शीलभद्र के चरणों में बैठकर अध्ययन किया था। वह उन्हें ” सत्य एवं धर्म का भंडार “ कहता है। यहां के अन्य विद्वानों में धर्मपाल ( जो शीलभद्र के गुरु तथा उनके पूर्व कुलपति थे ) चंद्रपाल, गुणामणि, स्थिरमति प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचंद्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सभी की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी यह सभी विद्वान मात्र एक शिक्षक ही नहीं थे अपितु विभिन्न ग्रंथों के रचयिता भी थे, इनकी रचनाओं का समकालीन विश्व में बड़ा सम्मान था। इन प्रसिद्ध आचार्यों के अतिरिक्त नालंदा में अनेक विद्वान भी थे जिन्होंने विद्या के प्रकाश से पूरे देश को आलोकित किया ।
नालंदा अपने ढंग का अद्भुत एवं निराला विश्वविद्यालय था हर्ष के बाद लगभग 12 वीं सदी तक इसकी ख्याति बनी रही. मंदसौर (आठवीं शती) प्रस्तर लेख से पता चलता है कि सभी नगरों में नालंदा अपने विद्वानों के कारण, जो विभिन्न धर्म ग्रंथों तथा दर्शन के क्षेत्र में निष्णात थे, सबसे अधिक ख्याति प्राप्त किए हुए था। इसकी ख्याति से आकर्षित होकर जावा एवं सुमात्रा के शासक बालपुत्रदेव ने नालंदा में एक मठ बनवाया तथा उसके निर्वाह के लिए अपने मित्र बंगाल के पाल नरेश देवपाल से 5 गांव दान में दिलवाया। 11 वीं सदी से पाल शासकों ने नालंदा के स्थान पर विक्रमशिला को राजकीय संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया जिससे नालंदा का महत्व घटने लगा। अंत में मुस्लिम आक्रांता बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया यहां के भिक्षुओं की हत्या कर दी गई तथा बहुमूल्यपुस्तकालय को जला दिया गया। इस प्रकार एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिक्षा केंद्र का अंत दुःखद हुआ।
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